इस दिवाली पर छोटे एवं माध्यम वर्गीय कई व्यापारियों की ग्राहकी कम रही । अन्य वजहों में से एक ख़ास वज़ह ऑन लाईन खरीददारी को भी माना गया है। यूँ देखने में ऑनलाईन बड़ा ही सुविधाजनक दिखाई देता है परंतु वास्तविकता में वह है नहीं । इस बार मैंने स्पीकर्स मँगवाए वो…. वैसे नहीं थे जैसी कल्पना की थी । पुनः भेज दिये परन्तु वक़्त तो चूक ही गए । हम कल्पना में बसी चीज़ को खुले बाज़ार में दस दुकानों पर घूम कर खरीद सकते हैं । ऑनलाईन मुम्बईया स्टाइल में बीस माले की बिल्डिंग में रहने वालों के लिए ठीक है।
पिछले कई सालों से बहुत से गाँवों के दौरे करता रहा हूँ अभी भी गया था …. । वहाँ व्यापार का मतलब अपने परिवार के आठ दस सदस्यों का भरण पोषण भी है। हमारे देश में गाँव एवं शहर में यही सबसे बड़ा फ़र्क है । गाँवों में हर परिवार में कुछ न कुछ हुनर एवं रोज़गार का साधन मिलेगा । जबकि शहर बेरोज़गारों की भीड़ मात्र हैं। गाँव स्वचालित हैं जबकि शहरों को चलाना पड़ता है । इस बार ऑनलाईन खरीददारी गाँव की इसी धुंधली सी ख़ूबी पर मार करती सी दिखाई दी….. कैसे ? ….आर्थिक दृष्टि से सक्षम परिवारों की नई पीढ़ी में से कई ने ऑनलाईन खरीददारी कर ली जबकि उन्हीं आइटमों के दुकानदार बेचारे देखते ही रह गए। गाँवों में जीवन बड़ा ही केल्क्युलेटेड होता है। ऑनलाईन व्यापार उस केल्क्युलेशन को बिगड़ता सा ही दिखाई दिया जो भविष्य में देश में गरीबी को और अधिक बढ़ाएगा ही।
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